पृथ्वी पर जो भी है वह हमारे लिए है परन्तु हमें उसके साथ जीने का सलीका सीखना होगा । पृथ्वी कहती है, मुझ से कुछ लो तो कुछ वापस भी करो हम पृथ्वी से केवल लेते हैं, उसे वापस कुछ नहीं लौटाते। प्रकृति एक पूर्ण चक्र है : एक हाथ से लो, तो दूसरे हाथ से दो। इस वर्तुल को तोड़ना ठीक नहीं है। लेकिन हम यही कर रहे हैं -सिर्फ लिये चले जा रहे हैं। इसीलिए सारे स्त्रोत सूखते जा रहे हैं धरती विषाक्त होती जा रही है। नदियां प्रदूषित हो रही हैं, तालाब मर रहे हैं। हम पृथ्वी से अपना रिश्ता इस तरह से बिगाड़ रहे हैं कि जैसे भविष्य में इस पर रहना ही नही । ये हमारे गलत कार्यो का ही परिणाम है जो आज पूरी मानव जाती कोरोना नामक महामारी से पीडित है । आज कोरोना के चलते पूरा भारत ही नही समझो पूरी मानव जाती घरो में बंद है । मानव मात्र के घरो में बंद रहने से पूरा पर्यावरण स्वच्छ हो गया है । सभी नदियाँ पहले की तरह निर्मल और पवित्र हो गयी है । धरती पर रहने वाले सभी जीव जन्तू खुश है । सडको पर वाहनो की दौड धीमी हो गयी है जिससे प्रतिदिन होने वाली हजारो दुर्घटनाएं बंद है। सभी परिवार के साथ घरो में रहते है और बहुत से फिजूल खर्चे बंद है जिससे लगता है जीवन पुन: लौट आया है ।
आधुनिक विज्ञान का रवैया जीतने वाला है परन्तु एक कोरोना वायरस ने उसे प्रकृति के साथ छेड़ छाड न करने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है । वह सोचता है कि धरती और आकाश से दोस्ती कैसी, उस पर तो बस फतह हासिल करनी है हमने कुदरत का एक करिश्मा तोड़ा, किसी नदी का मुहाना मोड़ दिया, किसी पहाड़ का कुछ हिस्सा काट लिया, किसी प्रयोगशाल में दो-चार बूँद पानी बना लिया और बस प्रकृति पर विजय हासिल कर ली।जैसे प्लास्टिक को देखो उसे बना कर सोचा, प्रकृति पर विजय हासिल कर ली कमाल है, न जलता है, न गीला होता है, न जंगलगती है महान उपलब्धि है। उपयोग के बाद उसे फेंक देना कितना सुविधाजनक है। लेकिन मिट्टी प्लास्टिक को आत्मसात नहीं करती। एक वृक्ष जमीन से उगता है। मनुष्य जमीन से उगता है। तुम वृक्ष को या मनुष्य को वापस जमीन में डाल दो तो वह अपने मूल तत्वों में विलीन हो जाते हैं लेकिन प्लास्टिक कोआदमी ने बनाया है। उसे जमीन में गाड़ दो और बरसों बादखोदो तो वैसा का वैसा ही पाओगे।
पर्यावरण का अर्थ है संपूर्ण का विचार करना। भारतीय मनीषा हमेशा 'पूर्ण' का विचार करती है। पूर्णता का अहसास ही पर्यावरण है। सीमित दृष्टि पूर्णता का विचार नहीं कर सकती।एक बढ़ई सिर्फ पेड़ के बारे में सोचता है। उसे लकड़ी की जानकारी है, पेड़ की और कोई उपयोगिता मालूम नहीं है। वे किस तरह बादलों को और बारिश को आकर्षित करते हैं। वे किस तरह मिट्टी को बांध कर रखते हैं। उसे तो अपनी लकड़ी से मतलब है।
यह सृष्टि परस्पर निर्भर है उसे किसी भी चीज से खाली करनेकी कोशिश खतरनाक है। न हम निरंकुश स्वतंत्र हैं, और नपरतंत्र हैं। यहाँ सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। पृथ्वी पर जो कुछभी है, वह हमारे लिए सहोदर के समान है। हमें उन सबके साथ जीने का सलीका सीखना होगा । जो पर्यावरण और संगीत की गहरी समझ रखते है और जिसका ह्रदय एक प्यासे पेड़ को देखकर व्याकुल हो उठता है वे ईश्वर के अधिक निकट होते है ।
जीवन और पर्यावरण को हमेशा से ही एक दूसरे के पूरक है , बगैर पर्यावरण के हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आज दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग एक प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दा बनते जा रहा है। विश्व अर्थ दिवस भी पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करता है। आज स्वच्छ वायु, स्वच्छ पानी और जो भी प्रजातियाँ पृथ्वी से लुप्त हो रही है उनको संरक्षित करने का संकल्प लेने का दिन है । पेड़ पौधो से धरती के श्रंगार का संकल्प लेने का दिन है । इसलिए हम सब आज पानी को व्यर्थ न बहाने व गंदा न करने , अधिक से अधिक पेड़ लगाने गोरैया के लिए घौसल बनाने आदि के साथ ही धरा की धानी चुनर को बनाये रखने का संकल्प लें ।
(लेेेखक-राकेश सैनी)